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कविता

मुझे भी चाहिए समर्पण

अंकिता रासुरी


ऊँचे पहाड़ की चोटी से निकलते सूरज की
खूबसूरत हल्की कुनकुनी धूप
पहाड़ के उस हिस्से की हरियाली
कुछ ही दूर बिछी हुई कोहरे सी चादर
कहीं भीतर से फूटता हुआ झरना और निरंतर बढता हुआ आगे की ओर
मैं मानती हूम तुम प्रकृति प्रेमी हो
चाहते हो इसे ताउम्र निहारना
पर उस से पहले मेरी भी कुछ सुन लो
पहाड़ सिर्फ स्वयं ही पहाड़ नहीं होते
ये जिंदगी को भी पहाड़ बना लेते हैं
हर उस शख्स की जो इनसे जुड़ा जाए
पर कहीं ये ना समझना कि ये इनकी साजिश है
क्या इनकी अपनी कोई वेदना नहीं हो सकती
स्वयं में सारी विकटताएँ समेटे हुए
सुकून देते रहें सबको लंबी अवधि तक
ये भी तो मुमकिन नहीं
मैं भी अब विकट हो चली हूँ इन सब में
इस पहाड़ की उपज जो हूँ
अपनी इच्छा तो समर्पण की रही है सदा से
परंतु अब मुझे भी चाहिए
सच में किसी का निश्छल समर्पण
पहाड़ भी तो माँगते हैं समर्पण कठोर जिंदगी का
तो फिर मैं क्यों ना माँगूँ
अब तुम्हें तुम्हें भी कुछ चुकाना होगा
वर्ना मैं भी भूल जाऊँगी
समर्पण का अर्थ


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